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Monday, December 31, 2018

रमण महर्षि - Raman Maharshi



रमण महर्षि अद्यतन काल के महान ऋषि और संत थे। उन्होंने आत्म विचार पर बहुत बल दिया। उनका आधुनिक काल में भारत और विदेश में बहुत प्रभाव रहा है। भारत के अलावा पश्चिम के कई देशों में अपना उजाला फैलाकर रमण महर्षि ने देश को गौरवान्वित किया है तथा मानव-जाति की बहुमूल्य सेवा की है। रमण महर्षि का जन्म 30 दिसम्बर, सन 1879 में मदुरई, तमिलनाडु के पास 'तिरुचुली' नामक गाँव में हुआ था। जीवन के आरम्भिक वर्षों में वेंकटरामन में कुछ भी उल्लेखनीय नहीं था। वे एक सामान्य बालक के रूप में ही विकसित हुए थे। उन्हें तिरुचुली के एक प्राइमरी स्कूल में तथा बाद में दिण्डुक्कल के एक स्कूल में शिक्षा के लिए भेजा गया। जब वे बारह वर्ष के थे, तभी इनके पिता का देहावसान हो गया। ऐसी स्थिति में उन्हें परिवार के साथ अपने चाचा सुब्ब अय्यर के साथ मदुरै में रहने की आवश्यकता पड़ी। मदुरै में उन्हें पहले 'स्काट मीडिल स्कूल' तथा बाद में 'अमेरिकन मिशन हाईस्कूल' में भेजा गया।

बचपन से ही रमण को लगता था कि अरुनाचला,  तमिलनाडु के तिरुवन्नामलाई शहर में स्थित एक पवित्र पर्वत और शिव मंदिर में कुछ रहस्यमय है जिसको समझना जरुरी है। जब वह 16 साल के थे तो उनके यहाँ एक बुजुर्ग मिलने के लिए आये। रमण के पूछने पर बुजुर्ग ने बताया कि वो अरुनाचला से आये हैं। यह जानकर वेंकटरमण उनसे बहुत कुछ पूछने के लिए उत्सुक हो गए और अरुनाचला के बारे में बुजुर्ग से कई सवाल पूछे।  उन्होंने 63 शिव संतो से सम्बंधित एक धार्मिक पुस्तक पढी। यह उनका पहला धार्मिक सहित्य था। इसको पढ़कर वह बहुत रोमांचित हुए। पुस्तक में दिए गए पवित्र संतो के उदाहरण उनके हृदय को छू गये। इसने उनके हृदय में त्याग और परमेश्वर के प्रति प्रेम की भावना को जाग्रत कर दिया।

रमण को 17 वर्ष की अवस्था में आध्यात्मिक अनुभव हुआ। उनके आध्यात्मिक अनुभव के 6 सप्ताह बाद ही एक घटना ने उनको घर-बार छोड़ने के लिए प्रेरित कर दिया। रमण के अंग्रेजी के शिक्षक ने उनकी पढाई की ओर उदासीनता को देखते हुए उन्हें एक अध्याय को तीन बार लिखने के लिए सजा के रूप में दिया। उन्होंने दो बार तो लिखा लेकिन तीसरी बार इसकी निरर्थकता को जानकर लिखना छोड़ दिया। कागज -किताब एक तरफ रख दिए और आँख बंद करके गहरे ध्यान में चले गये। इसके बाद उन्होंने घर छोड़ने का फैसला कर लिया। उन्हें पता था की उन्हें कहाँ जाना है। उन्होंने पवित्र अरुनाचला पर्वत की यात्रा प्रारंभ कर दी। उन्होंने घरवालों के लिए एक चिट्ठी लिखी जिसमें लिखा था, "मैं भगवान की खोज में उनके आदेशानुसार जा रहा हूँ..."

मदुरई से तिरुवन्नामलाई लगभग 400 किलोमीटर दूर है। रमण ने यह यात्रा मुख्यता रेल और बाकी पैदल चलकर पूर्ण की। रास्ते में अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। कई बार भूखा ही सोना पड़ता। पैदल चलने और भोजन न मिलने से मूर्छित हो जाते थे। उन्हें इस अवस्था में देखकर लोग उनकी सहायता करते और खाना देते। लेकिन ये सब कठिनाइयाँ रमण का मनोबल कम न कर सकीं और अंततः वें तिरुवन्नामलाई पहुँच गए। वहां पहुंचकर वे जल्दी से पवित्र अरुनाचलेश्वर मंदिर पहुंचे। इस समय मंदिर बिल्कुल खाली था। वहां पर मंदिर  के पुजारी भी नहीं थे। रमण सीधे मंदिर के गर्भ गृह में चले गये। जैसे ही वे अरुनाचलेश्वर के सामने खड़े हुए उन्हें अकथनीय आनंद का अनुभव हुआ। वे यात्रा में हुए सभी कटु-अनुभव भूल गए। वह मंदिर से बाहर आये और शहर कि गलियों में घूमे। उन्होंने औपचारिक तौर पर सन्यास नहीं लिया। जब किसी ने उनसे पूछा कि क्या वह अपना मुंडन कराना चाहते हैं तो उन्होंने अपनी सहमति दे दी। मुंडन करने के बाद वे मंदिर वापस आ गये।

पवित्र अरुनाचलेश्वर मंदिर ही तिरुवान्नालाई में उनका पहला घर था। कुछ सप्ताह तक वे मंदिर के हजार खम्बो वाले हॉल में रहे। लेकिन वहां पर कुछ शैतान लड़के पत्थर फेंक कर उनके ध्यान में विघ्न डालते। तब उन्होंने अपने आप को एक भूमिगत स्थान पर स्थान्तरित कर लिया जिसे आजकल 'पाताल लिंगम' के नाम से जाना जाता है। यहाँ उन्होंने कई दिन समाधि और ध्यान में बिताये। समाधि के समय वे गहरी ध्यान अवस्था में चले जाते जिससे उनको कीड़े और चीटियाँ के काटने का भी अनुभव न होता। अंत में उनको भक्तों द्वारा पाताल लिंगम से बाहर निकाला गया। इसके बाद उन्होंने कई स्थान बदले। वे कभी किसी से बात नहीं करते थे। ऐसा नहीं था की उन्होंने मौन का व्रत लिया था बल्कि उनकी बात करने की इच्छा ही नहीं होती थी। रमण महर्षि की तपस्या और समाधि देखकर उनका यश सब तरफ फैलने लगा। कुछ समय उपरांत रमण के परिवार वालों को पता लग गया कि वे अरुनाचला में हैं। उनकी माँ ने रमण को घर ले जाने की बहुत कोशिश की लेकिन वे शांत रहे और माँ को कोई जवाब नहीं दिया। माँ के कई दिनों तक प्रयास करने के बाद रमण ने एक पृष्ठ पर लिखकर कहा, "सभी मनुष्यों के कार्य उनके प्रारब्ध कर्म से निर्धारित होते हैं। जो नहीं होना है वह नहीं होगा, भले ही आप उसे करने के लिए अथक परिश्रम कर लें। जो होना है वह होकर रहेगा, भले ही आप उसे रोकने की कोशिश करते रहें। यह निश्चित है। बुद्धिमत्ता इसी में है कि शांत रहें।" महर्षि का दृढ निश्चय देखकर उनकी माँ निराश और भारी मन से वापस लौट आयी।

कुछ समय के पश्चात महर्षि अरुनाचला पर्वत पर विरुपाक्ष नामक गुफा में रहने लगे। यहाँ पर भी भक्तों ने उनसे आध्यत्मिक प्रश्न करना जारी रखा। कुछ प्रश्नों का जवाब वे इशारों से और बाकी का जवाब लिखकर देते थे। यहीं पर 1902 में शिव प्रकासम पिल्लै नामक व्यक्ति रमण के पास 14 प्रश्न स्लेट पर लिखकर लाये। इन्हीं 14 प्रश्नों के उत्तर रमण की पहली शिक्षाएं है। इनमें आत्म निरीक्षण की विधि है जो कि तमिल में "नान यार" और अंग्रेजी में "हू ऍम आई" के नाम से प्रकाशित की गयी। उस समय के प्रसिद्ध संस्कृत विद्वान गणपति आचार्य 1907 में रमण से मिलने गए और उनसे अपने आध्यत्मिक संदेह पर बात की। गणपति आचार्य ने बताया कि जो कुछ भी आध्यात्मिकता के बारे में पढ़ा जा सकता है मैंने पढ़ा है, यहाँ तक कि  वेदान्त शास्त्रों की भी मुझे पूर्ण समझ है। जप भी मैं अपने हृदय से करता हूँ। लेकिन फिर भी 'तपस' क्या है अब तक समझ नहीं पाया हूँ? यही जानने के लिए आपकी शरण मैं आया हूँ। रमण 15 मिनट तक उनकी आँखों में शांत होकर देखते रहे और फिर बोले- "अगर कोई यह देख पाए कि 'मैं' के भाव का उद्भव कहाँ से होता है तो उसका मन उसी स्थान पर अवशोषित हो जायेगा, और यही तपस है। अगर कोई देख पाए कि मंत्र बोलते समय मंत्र की ध्वनि कहाँ से पैदा होती है, तो उसका मन उसी स्थान पर अवशोषित हो जायेगा, और यही तपस है।" यह रहस्योद्घाटन जानकर विद्वान शास्त्री ने उनके सामने आत्मसमर्पण कर दिया और उन्हें भगवान व महर्षि के नाम से संबोधित किया। शास्त्री ने बाद में रमण-गीता लिखी जिसमें महर्षि की शिक्षाओं के बारे में बताया गया है। रमण महर्षि के शिष्यों ने उनके लिए एक आश्रम और मंदिर का निर्माण किया जहाँ पर देश और विदेश से भक्त आकर रहते थे।

आश्रम में जानवर और पक्षी भी निर्भय होकर रहते थे। महर्षि इन पक्षियों और जानवरों को मनुष्यों की तरह संबोधित करते थे। महर्षि और ये पशु-पक्षी एक दूसरे से बहुत घुल मिल गए थे। यूरोप के एक लेखक पाल ब्रंटन ने महर्षि की ख्याति के बारे में सुना तो वे उत्सुकतावश महर्षि से मिलने के लिए आश्रम पहुंचे। वहां उनके साथ जो घटना घटी, उसने उनकी आंखें खोल दी। वे रात को एक मचान पर सोने की तैयारी कर रहे थे। तभी उन्होंने देखा कि मचान पर एक जहरीला सांप चढ़ रहा है। उन्हें लगा कि आज उनकी मृत्यु निश्चित है। तभी रमण महर्षि का एक सेवक वहां आया औऱ सांप से आदमी की तरह बोला- ठहरो बेटा। सांप एक आज्ञाकारी बालक की तरह जहां का तहां रुक गया और फिर पहाड़ों की तरफ गया और गायब हो गया। यह अद्भुत घटना थी। पाल ब्रंटन के लिए यह चकित करने वाली घटना थी। उन्होंने आश्रम के सेवक से पूछा- आखिर तुमने यह चमत्कार कैसे किया? सेवक ने कहा- यह मैंने नहीं, रमण महर्षि ने चमत्कार किया। उनका कहना है कि जीव- जंतु किसी से भी अगर हम गहरे प्यार से बोलेंगे तो वह जरूर सुनेगा।

कुछ समय बाद रमण की माता भी आश्रम में आकर रहने लगी। यहाँ पर उन्होंने रसोई का कार्यभार संभाला और आध्यात्मिक जीवन का गहन प्रशिक्षण प्राप्त किया। उनकी माँ की तबियत ख़राब रहने लगी। रमण अब अपना समय माँ की सेवा-सुसुश्रा में बिताने लगे। एक दिन सुबह के समय वे अपनी माँ के पास बैठे और अपना दाहिना हाथ माँ की छाती के दाहिने हिस्से पर और बांया हाथ सिर पर रखा और माँ को मुक्ति दी। माँ की समाधि के शीर्ष पर एक शिवलिंग की स्थापना की गयी। आश्रम में दूर-दूर से लोग आने लगे थे और आश्रम का विस्तार काफी बढ़ गया था। नए विभाग जुड़ने लगे जैसे वेदों के अध्ययन के लिए स्कूल, गौशाला, प्रकाशन कार्य इत्यादि। एक माता का मंदिर भी बनाया गया जहाँ नियमित पूजा होती थी। रमण ज्यादातर हॉल में ही बैठते और देखते रहते कि उनके चारों तरफ क्या हो रहा है। वह काफी सक्रिय रहते और पत्तों से प्लेट बनाते, अख़बार पढ़ते, और पत्रों के द्वारा पूछे गये प्रश्नों के उत्तर लिखते रहते। महर्षि के पास बाहर जाकर उपदेश देने के लिए बहुत निमंत्रण आये लकिन वे कभी तिरुवन्नामलाई से बाहर नहीं गये। बाद के वर्षो में वें अधिकतर भक्तों के सामने मौन बैठे रहते थे। कभी किसी ने सवाल पूछा तो जवाब दे दिया। उनके सामने बैठने वाले लोगों को विशेष अनुभव होता था। कुछ ने अनुभव किया कि जैसे समय रूक गया है। कुछ ने एक असीम शांति, जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता, का अनुभव उनकी मुस्कुराती शांत आँखों में देखते हुए किया।

रमण महर्षि के तिरुवन्नामलाई आगमन के 50 वर्ष 1946 में हुए। इस उपलक्ष में स्वर्ण जयंती मनाई गयी। 1947 में उनकी तबियत ख़राब होने लगी और और कुछ समय उपरांत उनके बाएं हाथ की कोहनी में एक गांठ हो गयी। आश्रम के चिकित्सकों ने इसे काटकर बाहर निकाला लेकिन एक महीने में यह फिर से हो गयी। क्योंकि महर्षि अरुणाचलम् से बाहर नहीं जाते थे इसलिए चेन्नै से शल्य चिकित्सकों का एक दल आश्रम आया। जब शल्यक्रिया प्रारंभ करने का समय आया, तब चिकित्सकों ने महर्षि रमण को मूर्च्छावस्था में ले जाना चाहा, जिसे करने से उन्होंने मना कर दिया। शल्य चिकित्सक शल्यक्रिया करने में जुट गए, किन्तु उनके सामने एक समस्या खड़ी हो गई। जब गाँठ में स्थित मृत कोशिकाओं को काटते हैं तो दर्द नहीं होता लेकिन जब जीवित कोशिकाओं को काटते हैं तो दर्द होता है। दर्द होने पर मूर्च्छावस्था में शरीर में हलचल होती है जिससे चिकित्सकों को ज्ञात हो जाता है कि वहाँ जीवित कोशिका है। किन्तु महर्षि रमण के मुँह से सिसकारी भी नहीं निकल रही थी। अत: डाक्टरों की परेशानी यह थी कि पता कैसे लगे कि कौन-सी कोशिकाएँ मृत हैं और कौन सी जीवित? चिकित्सकों ने अपनी परेशानी महर्षि रमण के सामने रखी तो उन्होंने कहा 'जिस शरीर पर तुम शल्यक्रिया कर रहे हो, वह मैं नहीं हूँ। मैंने अपने आपको शरीर से अलग कर रखा है और वेदना तो शरीर को होती है।' शल्यक्रिया के बाद भी वह गांठ ठीक नहीं हो पायी।  इसके बाद शल्यचिकित्सकों ने महर्षि का हाथ अलग करने का सुझाव दिया जिसे उन्होंने मना कर दिया। उन्होंने कहा कि चिंता की कोई बात नहीं है, शरीर नश्वर है और इसका एक प्राकृतिक अंत है। इसे पंगु बना देना सही नहीं। महर्षि की आँखों में हमेशा की तरह चमक थी और वह अपने दर्द के प्रति उदासीन थे। उन्होंने अपने भक्तों से मिलना जारी रखा। जो भक्त उनके दुःख से दुखी थे उनसे उन्होंने कहा कि मैं यह शरीर नहीं हूँ।

15 अप्रैल 1950 की शाम के समय महर्षि ने सभी भक्तों को दर्शन दिए। आश्रम में सभी जानते थे कि अंत समय निकट है। सबने अरुनाचला शिव भजन गाया। महर्षि ने अपने सेवक से कहा कि उन्हें बैठा दे। उन्होंने थोड़े समय के लिए अपनी चमकदार और अनुग्रहित आँखे खोली। उनके चेहरे पर मुस्कान थी और उनकी आँखों के बाहरी कोनो से आनंद के आंसू निकले।  एक गहरी साँस के साथ वे शांत हो ये। उसी क्षण एक धूमकेतु आकाश में दिखाई दिया जो कि धीरे-धीरे पवित्र पर्वत अरुनाचला के शिखर पर पहुँच कर उसके पीछे गायब हो गया।

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