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Tuesday, July 6, 2021

भारतीयता प्रथम की अवधारणा को बल दिया है भागवत जी ने



--सिद्धार्थ शंकर गौतम 

”हम समान पूर्वजों के वंशज हैं ये विज्ञान से भी सिद्ध हो चुका है। 40 हजार साल पूर्व से हम भारत के सब लोगों का डीएनए समान है।” राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत जी के ये उद्गार भले ही गूढ़ अर्थ लिये हों किन्तु इन पर विवाद का काला साया पड़ गया है। यह विज्ञानसम्मत तथ्य है कि भारत में रहने वाले सभी निवासियों का डीएनए समान है। इसी विज्ञानसम्मत तथ्य ने आर्य-द्रविड़ थ्योरी को भी सिरे से नकार दिया है जिसमें आर्यों को विदेशी आक्रमणकारी बताकर भारतीय में विभेद का षड्यंत्र होता था। तो मोहन भागवत जी ने जो कहा वह सत्य है और उस पर अनावश्यक विवाद खड़ा किया जा रहा है। दरअसल, जिन्होंने मोहन जी के पूरे भाषण को नहीं सुना वे सबसे अधिक प्रलाप कर रहे हैं। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा, ‘कुछ काम ऐसे हैं जो राजनीति बिगाड़ देती है। मनुष्यों को जोड़ने का काम राजनीति से होने वाला नहीं है।’ चूँकि संघ समाज में समाज के लिए कार्य करता है अतः उनकी सोच को संघमय समाज का प्रतिबिम्ब समझना चाहिए।

महात्मा गाँधी ने भी हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए प्रयास किये किन्तु उनके प्रयास सदा एकतरफा हो जाते थे जिसका परिणाम नोआखली से लेकर पंजाब तक में देखा गया। संघ संस्थापक डॉ. हेडगेवार ने संघ स्थापना के समय राष्ट्रीयता, भारतीयता व संघमय समाज की कल्पना की थी। उनका संघ कभी मुस्लिम विरोध को आश्रय नहीं देता था। हालांकि अंग्रेजों की ‘बांटों और राज करो’ की नीति ने हिन्दू-मुस्लिम में भेद किया। यहाँ तक कि मुस्लिम लीग और खिलाफत आन्दोलन ने भी मुस्लिम समुदाय को भ्रमित किया जिसका परिणाम पाकिस्तान के रूप में दुनिया के सामने है। श्रीगुरुजी ने कहा था, ‘भारतीयकरण का अर्थ सभी लोगों को हिंदू धर्म में परिवर्तित करना नहीं है। हम सभी को यह एहसास करायें कि हम इस मिट्टी की संतान हैं, हमें इस धरती के प्रति अपनी निष्ठा रखनी चाहिए। हम एक ही समाज का हिस्सा  हैं और हमारे पूर्वज एक ही थे। हमारी आकांक्षाएं भी समान हैं। इसी भाव को समझना ही वास्तविक अर्थों में भारतीयकरण है। भारतीयकरण का मतलब यह नहीं है कि किसी को अपना संप्रदाय त्यागने के लिए कहा जाए। हमने न तो यह कभी कहा है और न ही कहेंगे बल्कि हमारा मानना है कि संपूर्ण मानव समाज एक ही पंथ-प्रणाली का पालन करें, यह कतई उपयुक्त नहीं।’ बालासाहब देवरस जी के कालखंड में भी मुस्लिम समुदाय को भारतीयता से जोड़ने के प्रयास हुए। सुदर्शन जी के कालखंड में मुस्लिम राष्ट्रीय मंच का गठन हुआ जिसके नाम में ही ‘राष्ट्रीय’ है। अब यदि मोहन जी उसी सोच को वृहद् स्तर पर बढ़ा रहे हैं तो यह राष्ट्रहित में ही है। फिर जो गुट उनके इस वक्तव्य में राजनीति खोज रहे हैं तो वे मूर्खता का प्रदर्शन कर रहे हैं क्योंकि हिन्दू-मुस्लिम राजनीति से दूर होते हैं; ऐसा कहकर उन्होंने तो स्वयं राजनीति को आईना दिखा दिया है।

हाल ही में प्यू रिसर्च फाउंडेशन के सर्वे में यह तथ्य निकलकर आया है कि हिन्दुओं की भांति मुस्लिम समुदाय का एक बड़ा वर्ग राष्ट्र को सर्वोपरि मानता है। अपवादों को परे रखते हुए इसे ऐसे समझें कि सेना से लेकर पुलिस प्रशासन तक में मुस्लिम समुदाय की प्राथमिकता राष्ट्र व् समाज हित की होती है। सर्वे के दौरान 64 प्रतिशत हिन्दुओं ने माना था कि हिन्दू होने के लिए भारतीय होना अनिवार्य है। वहीं लगभग 58 प्रतिशत हिन्दुओं का मानना था कि भारतीय होने के लिए हिन्दीभाषी होना अनिवार्य है। हालांकि इस तथ्य पर सवाल उठ सकते हैं किन्तु भारतीय होना किसी बंधन या शर्त का भाग नहीं है। दरअसल कट्टरता मुस्लिम समुदाय में अधिक है और उसी कट्टरता की प्रतिक्रियावादी स्थिति हिन्दुओं में निर्मित होती है। मुस्लिमों की इस कट्टरता को राजनीति भी खाद-पानी देती रही है। मुस्लिमों के थोकबंद वोटों के लिए देश के राजनीतिक दलों ने सेक्युलरिज्म की तमाम सीमाओं को लांघ दिया है जिसके प्रतिउत्तर में हिन्दू समुदाय के एक बड़े वर्ग में मुस्लिमों के प्रति नफरत व गुस्से की भावना होना स्वाभाविक है। और यह नफरत मुस्लिम होने से नहीं उनके पाकिस्तान जिंदाबाद कहने से है। उनके लव जिहाद करने से है। देश के ऊपर मजहब को मानने के लिए है। अपने मजहब को दूसरों पर थोपने से है।

दरअसल, कठमुल्लों ने इस्लाम की अवधारणा को अपने हितों के लिए तोड़ा-मरोड़ा है। यदि कोई कुरआन का ज्ञाता हो तो दारुल उलूम देवबन्द में प्रकाशित साहित्य पढ़ने पर दोनों में अंतर समझ आयेगा। पद्मश्री से सम्मानित वरिष्ठ चिन्तक स्व. मुज़फ्फर हुसैन जी ने एक बार अपने मुंबई स्थित निवास पर चर्चा करते हुए मुझसे कहा था कि चूँकि मैं मुस्लिम समुदाय को कुरआन, दीन और ईमान के अनुसार चलना सिखाता हूँ अतः मेरे निवास पर सैकड़ों पर मौलवी समर्थक मुस्लिम हमले कर चुके हैं। उन्होंने यह तक कहा कि एक बार रात के हमले में उनके घर में आग भी लगा दी गई थी। अब आप समझ सकते हैं कि एक मुस्लिम भी यदि मुस्लिम समुदाय में व्याप्त कठमुल्लेपन का विरोध करे तो उसके प्रति कैसा व्यवहार अपनाया जाता है? देखा जाए तो मुस्लिमों के एक बड़े वर्ग की यही कट्टरता उसे राष्ट्र की मुख्यधारा से अलग-थलग करती है। परिवर्तन सृष्टि का नियम है और यह भी सत्य है कि जो जड़ होता है उसका विकास नहीं हो सकता। हिन्दुओं ने अपने आप को इस जड़ता से बाहर निकाला है। सैकड़ों जाति, उपजाति, वर्ण इत्यादि के बाद भी आज यदि हिन्दू सहिष्णु हैं तो उसका कारण जड़ता का न होना है जबकि मुस्लिम समुदाय में मुल्ले-मौलवी इसी जड़ता का लाभ उठाकर अपना स्वार्थ सिद्ध कर रहे हैं। वैसे भी झूठे आख्यानों की बुनियाद पर मुस्लिम समाज का भला तो नहीं ही हो सकता है।

मोहन भागवत जी ने अपनी ओर से अद्भुत प्रयास किया है एकता और सामंजस्य का। डीएनए हमारा एक है किन्तु अब यह मुस्लिम समुदाय को तय करना है कि उनकी सोच क्या है? क्या वे अब भी अरब, तुर्की के इस्लाम को मानेंगे जो उन्हें दोयम दर्जे का मानता है या स्वयं में भारतीयता के अनुसार बदलाव लाकर सामाजिक सद्भाव की मिसाल पेश करेंगे? पुरातन इतिहास देखें तो देव-दानव, कौरव-पांडव सभी एक थे किन्तु कर्मों से उनमें विभेद हुए। वर्तमान में उनके पूर्व कर्म ही उनका चरित्र-चित्रण करते हैं। अब यह दोनों वर्गों को तय करना है कि वे किस रूप में भविष्य में याद रखे जायेंगे। मुस्लिम समाज यदि कट्टरपन से बाहर निकल आये और राष्ट्रीयता को खुलेमन से स्वीकार करे तो उनके नाम पर चलने वाली राजनीतिक दुकानदारी भी बंद होगी और भारत पुनः विश्व गुरू के रूप में स्थापित हो सकेगा। राष्ट्र प्रथम-भारतीयता प्रथम की अवधारणा का यह खुले मन से बड़ा प्रयास है जिसकी सराहना होना चाहिए।

लेखक  ‘एकल’ वनबन्धु परिषद् के मीडिया सेल कोऑर्डिनेटर के दायित्व पर हैं 

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