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Thursday, June 24, 2021

संकल्प से सिध्दि तक : डाॅ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी पर विशेष



लेख : मनोज कुमार पाण्डेय, भाजयुमो 

Twitter @mbaba298

अपने संकल्प की पूर्ति हेतु डाॅ. मुखर्जी बगैर परमिट के सन् 1953 में जम्मू-कश्मीर की यात्रा पर निकल पड़े। चूंकि धारा- 370 के अंतर्गत वहां प्रवेश हेतु परमिट अनिवार्य रूप से आवश्यक था इसलिए डाॅ. मुखर्जी को गिरफ्तार कर लिया गया व 23 जून 1953 को रहस्यमय परिस्थितियों में उनकी मृत्यु हो गयी।

एक बार भारत में इंग्लैंड के वायसराय लार्ड कर्जन ने कलकत्ता हाईकोर्ट के न्यायाधीश श्री आशुतोष मुखर्जी से एडवर्ड सप्तम के अभिषेक उत्सव में भाग लेने का आग्रह किया। आशुतोष जी ने कहा- मैं अपनी माताजी से आज्ञा लेने के पश्चात ही इंग्लैंड जाने की स्वीकृति दे सकता हूं। परंतु उनकी माता जी नहीं चाहती थी कि उनका पुत्र इंग्लैंड जाए, अतः उन्होंने इनकार कर दिया। लार्ड कर्जन ने कहा- अपनी माताजी से कह दो कि देश के वायसराय तथा गवर्नर जनरल का आदेश है कि तुम इंग्लैंड जाव। परंतु आशुतोष मुख़र्जी ने उत्तर दिया मेरे लिए मेरी मां के आदेश व इच्छा से बढ़कर किसी दूसरे का आदेश कोई महत्व नहीं रखता। उन दिनों एक भारतीय के इस प्रकार के निर्भीकता भरे उत्तर सुन लार्ड कर्जन आवाक् रह गये थे। ये साहस भरे शब्द कलकत्ता हाईकोर्ट के एक न्यायाधीश मात्र के नहीं अपितु उस वीर पिता के भी थे जिनके यहां भविष्य में भारत माँ के लिए अपने प्राणों का बलिदान देने वाले डाॅ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी का जन्म हुआ।


बचपन से ही उत्कृष्ट संस्कारों तथा अध्यात्मिक परिवेश में पलने के कारण डाॅ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के मन में राष्ट्रवाद रूपी भावना के बीज अंकुरित होने लगे थे। मित्र संस्थान में प्रारंभिक शिक्षा तथा प्रेसिडेंसी काॅलेज में वकालत की पढ़ाई करके डाॅ. मुखर्जी जब इंग्लैंड गये तब वहां पहले वकील फिर अंग्रेजी बार के सदस्य बन गए। जब वे वापस भारत लौटे तो कलकत्ता विश्वविद्यालय की ओर से विधान परिषद् के सदस्य निर्वाचित हुए तथा मात्र 33 वर्ष की अल्पायु में ही वे कलकत्ता विवि के कुलपति बन गये। इस पद पर नियुक्त होने वाले वे विश्व के सबसे कम उम्र के कुलपति थे। इस दरम्यान एक विचारक तथा शिक्षाविद् के तौर पर वे खासे लोकप्रिय हुए। कुलपति के रूप में उनके कार्यकाल में ही विवि के दीक्षांत समारोह में कविवर रवीन्द्रनाथ टैगौर ने बांग्ला में भाषण दे इक नयी परंपरा की शुरूआत की थी जिसने भविष्य में भारतीय भाषाओं के उदय हेतु मार्ग प्रशस्त किया।


डाॅ.मुखर्जी को बचपन से ही यह इल्म था कि अध्यात्म और विज्ञान युक्त शिक्षा ही भारत को विश्वगुरू के रूप में स्थापित कर सकती है।अपने संपूर्ण जीवन में उन्होने सतत लोक कल्याण तथा मानवतावाद पर जोर दिया जिसकी एक झलक तब 1943 में बंगाल में आए भयंकर अकाल के दौरान देखने को मिली। इस आपदा की ओर संपूर्ण देश के ध्यानाकर्षण हेतु उन्होंने बड़े व्यापारियों, राजनेताओं तथा समाजसेवियों को बंगाल आमंत्रित किया तथा राहत समिति का गठन किया जिसने उस दौरान भूखों तक अन्न पहुंचाने में महती भूमिका निभाई थी। यह डाॅ. मुखर्जी का राजनैतिक चातुर्य कौशल था। किसी भी समस्या को सुनकर वह न केवल मौखिक सहानुभूति प्रकट करते थे अपितु उसके निस्तारण हेतु यथासंभव व्यवहारिक सुझाव भी देते थे।


सदैव सांस्कृतिक दृष्टि से सबको एक रक्त का मानने वाले डाॅ. मुखर्जी सभी भारतीयों के लिए एक राष्ट्र, एक विधान व एक निशान के प्रबल पक्षधर थे। यह डाॅ. मुखर्जी के संपूर्ण समाजिक जीवन का वह महत्वपूर्ण रत्नजड़ित विषय था जिसकी पूर्ति के लिए उन्होंने अपने प्राणों तक की आहुति दे दी। गौरतलब हो कि उस समय जम्मू कश्मीर में धारा 370 लागू था जिसके तहत वहां अलग प्रधान, अलग विधान व अलग निशान की व्यवस्था थी जिसके डाॅ. मुखर्जी खासे खिलाफ थे तथा इसके खात्मे के लिए उन्होंने संसद से लेकर सड़क तक आंदोलन छेड़ रखा था। अगस्त 1952 में जम्मू में इस बाबत आयोजित इक रैली में डाॅ. मुखर्जी के शब्द कुछ इस प्रकार थे- या तो मैं आपको भारतीय संविधान प्रदत्त अधिकार प्राप्त कराऊंगा या इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए अपना जीवन बलिदान कर दूंगा।


अपने इस संकल्प की पूर्ति हेतु डाॅ. मुखर्जी बगैर परमिट के सन् 1953 में जम्मू-कश्मीर की यात्रा पर निकल पड़े। चूंकि धारा- 370 के अंतर्गत वहां प्रवेश हेतु परमिट अनिवार्य रूप से आवश्यक था इसलिए डाॅ. मुखर्जी को गिरफ्तार कर लिया गया व 23 जून 1953 को रहस्यमय परिस्थितियों में उनकी मृत्यु हो गयी।


भले ही निज बलिदान के 67 वर्ष पश्चात ही सही परंतु यह सौभाग्य भी विरलों को ही नसीब होता है कि जिन विचारों की प्रेरणा से संकल्पित होकर डाॅ. मुखर्जी ने पंडित नेहरू की कैबिनेट से इस्तीफा दिया व जिस संगठन की स्थापना कर सांस्कृतिक व समाजिक रूप से विविध भारत के आम जनमानस को एक राष्ट्र, एक विधान- एक निशान की राष्ट्रीय भावना से जोड़ा, कालांतर में उसी संगठन से निकले एक साहसी नायक ने राष्ट्र के माथे पर कलंक रूपी खुदी उस धारा 370 तथा आर्टिकल 35 A को हमेशा के लिए हटा उनके संकल्प को पूरा किया।


धारा 370 हटने के पश्चात डाॅ श्यामा प्रसाद मुखर्जी जी की यह दूसरी पुण्यतिथि है। आइए इस अवसर पर हम इस महान आत्मा के विचारों को आत्मसात करें व भव्य भारत के निर्माण में अपनी भूमिका सुनिश्चित करें। चूंकि आज भी देश में तमाम तरह के अलगाववादी व देश को तोड़ने वाली शक्तियां लगी हुई है परंतु हमें उनका डटकर विरोध करना है व यदि इस विरोध में हमें अपने प्राणों की आहूति देकर भी राष्ट्र की संप्रभुता की रक्षा करनी पड़ तो हमारे कदम पीछे नहीं हटने चाहिए। यही उनको हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी।


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