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Thursday, January 21, 2021

‘हलाल’ के पीछे का गणित क्या है ? जानने के लिए पढ़ें पूरा लेख ..




लेखक : अरुण कुमार सिंह 

Twitter @arunpatrakar


इन दिनों इंडोनेशिया, मलेशिया और कुछ हद तक भारत में भी यह बात सुनाई दे रही है कि जब तक मजहबी नेता यह नहीं कहेंगे कि कोरोना का टीका ‘हलाल’ है या नहीं, तब तक कोई भी मुसलमान टीका नहीं लगाएगा। यानी जिस तरह पोलियो के टीके का विरोध कुछ कट्टरवादियों ने किया था, उसी तरह अब कोरोना के टीके का विरोध किया जा रहा है। पोलियो के टीके का विरोध यह कहते हुए किया गया था कि इससे व्यक्ति नपुंसक बन जाता है। यह कट्टरवादियों की केवल शरारत थी। इसके कारण मुसलमानों के एक वर्ग ने पोलियो का टीका लेने से मना कर दिया था। इस वर्ग को समझाने के लिए सरकार को मजहबी नेताओं का सहयोग लेना पड़ा था। इसमें बरसों का समय लग गया था। इसके बाद वे लोग पोलियो का टीका लगवाने के लिए तैयार हुए थे और आज भारत पोलियो-मुक्त है।

  • आखिर कोरोना के टीके का विरोध क्यों ? 

अब ऐसे ही कुछ कट्टरवादी कोरोना के टीके का विरोध कर रहे हैं। इस बार ये दो बातें कह रहे हैं-एक, यह टीका हलाल है या नहीं। दूसरी, वही पुरानी बात है कि इससे व्यक्ति नपुंसक बन जाएगा। दुर्भाग्य से उनकी इस मानसिकता को अपने वोट के लिए उपयुक्त पाकर कुछ नेता भी कह रहे हैं कि वे भाजपा के टीके को नहीं लगाएंगे। एक तरह से ये लोग कट्टरवादियों को इस टीके के विरोध के लिए उकसा रहे हैं। और ये कट्टरवादी ‘हलाल’ के नाम पर इसका विरोध कर रहे हैं।

  • क्या होता हलाल ?

आगे बढ़ने से पहले अरबी शब्द ‘हलाल’ का अर्थ जानते हैं। हलाल का मतलब होता है ‘वैध’, ‘तर्कसंगत’, ‘जायज’ आदि। इस्लाम के उदय से पहले वहाँ रहने वाले हर मत, मजहब, कबीला की अपनी मान्यताएँ और जायज-नाजायज निर्धारित थे। कालांतर में इस्लाम के इसी जायज-नाजायज को ‘हलाल’ या ‘हराम’ मान लिया गया।

मुख्य रूप से इस्लाम हर वस्तु, सेवा, आचार-विचार पद्धति को ‘हलाल’ या ‘हराम’ में बाँटता है। मुसलमानों की यह मानसिकता अब एक हथियार का रूप ले चुकी है। इसे गैर-मुस्लिमों पर चलाया जा रहा है और उसके जरिए अर्थतंत्र, राजनीति, समाज आदि को प्रभावित करने के साथ-साथ धार्मिक मान्यताओं को आघात पहुँचाया जा रहा है। लोगों को इस्लाम की मान्यताओं के नजदीक लाने का प्रयास किया जा रहा है। अब हलाल केवल मांस तक सीमित नहीं रह गया है। हलाल दवाई, हलाल वस्तु, हलाल अन्न, हलाल वस्त्र, हलाल अस्पताल, हलाल घर, हलाल गाड़ी, हलाल वेश्यावृत्ति जैसी माँगें होने लगी हैं। अब ‘हलाल’ और ‘हराम’  संघर्ष, षड्यंत्र, युद्ध, जिहाद का मूल कारण बन गए हैं। 

  • हलाल की आड़ में कैसा  षड्यंत्र ?

 गंभीरता से विचार करने पर पता चलता है कि हलाल की आड़ में एक बहुत बड़ा षड्यंत्र चल रहा है। वह षड्यंत्र है वैश्विक अर्थव्यवस्था पर कब्जा करना। हलाल के पक्षधर इस बात पर जोर देते हैं कि कोई भी वस्तु बने, वह इस्लामी रीति-रिवाज से बने और इस्लामी जगत् को लाभ पहुँचाने वाली हो। इसका अर्थ है कि आप यदि कोई कारखाना लगाते हैं, तो उसमें काम करने वाले मुसलमान ही हों। भारत में ऐसा करना तो अभी संभव नहीं है, पर इस्लामी देशों में इस बात पर विशेष रूप से ध्यान दिया जाता है। फिर भी भारत में कुछ ऐसे संस्थान हैं, जहाँ मुसलमान ही काम करते हैं। एक सजग भारतीय को पता है कि वे संस्थान कौन से हैं। हलाल की अवधारणा के तहत ही पाकिस्तान जैसे देशों में किसी भी गैर-मुस्लिम को नौकरी पर नहीं रखा जाता है। अपवाद अवश्य मिलेंगे, लेकिन ज्यादातर संस्थान, चाहे वे सरकारी हों या गैर-सरकारी, मुसलमानों को ही नौकरी देते हैं।

  • हलाल बना हथियार

अरब के देशों ने तो हलाल को एक हथियार बना लिया है। वे उन्हीं विदेशी कंपनियों से कोई वस्तु आयात करते हैं, जिन्हें ‘हलाल प्रमाणपत्र’ मिला हो। हलाल प्रमाणपत्र देने के लिए कंपनियों से मोटी रकम वसूली जाती है। इसके साथ ही यह भी शर्त होती है कि कच्चा माल किसी मुसलमान से ही लेना है, रोजगार मुसलमानों को ही देना है। भारत जैसे देशों में तो ये सारी शर्तें पूरी नहीं की जा सकती हैं, इसलिए ऐसे देशों को कुछ छूट दी जाती है। इस्लामी देशों को इन शर्तों में कोई छूट नहीं मिलती है। यानी वे जो भी करें इस्लाम और उनके बंदों के लिए करें। यही इस्लाम में ‘जायज’ है और यही ‘हलाल’ है।

  • भारत में कौन लोग देते हैं हलाल का सर्टिफिकेट ?

भारत में हलाल का प्रमाणपत्र ‘हलाल इंडिया प्राइवेट लिमिटेड’, ‘हलाल सर्टिफिकेशन सर्विसेस इंडिया प्राइवेट लिमिटेड’, ‘जमीयत-ए-उलेमा-ए-हिंद ट्रस्ट’, ‘जमीयत-ए-उलेमा महाराष्ट्र’, ‘हलाल काउंसिल ऑफ इंडिया’, ‘ग्लोबल इस्लामिक शरिया सर्विसेस’ जैसी इस्लामिक संस्थाओं द्वारा दिया जा रहा है। जिस कंपनी को ये लोग हलाल का प्रमाणपत्र देते हैं उससे मोटी रकम लेते हैं।

ऐसा कहा जाता है कि इन संस्थाओं के कहने पर ही कोई मजहबी नेता फतवा देता है कि किसी भी मुसलमान को केवल ‘हलाल’ वस्तु का ही प्रयोग करना चाहिए। इसी का परिणाम है कि मुस्लिम इलाकों में उन्हीं वस्तुओं को खरीदने का चलन बढ़ रहा है, जिन पर हलाल प्रमाणपत्र की मुहर होती है। यानी इनका एक मात्र उद्देश्य है कि मुसलमान वही सामान खरीदें, जिनके लिए हलाल प्रमाणपत्र लिया गया हो यानी किसी मुस्लिम संस्था को पैसा दिया गया हो।

कोरोना के टीका के बारे में यही बात लागू होती है। कट्टरवादियों की मंशा है कि कोरोना का टीका जिन कंपनियों ने तैयार किया है वे भी हलाल प्रमाणपत्र लें यानी वे मुस्लिम संस्थाओं को पैसा दें, तभी मुसलमान उस टीके को हलाल मानेगा और उसे लगवाएगा। इस सोच के पीछे भी इस्लाम को लाभ पहुँचाना है।    

कहा जाता है कि भारत में जो संगठन हलाल का प्रमाणपत्र देते हैं, वे हलाल के पैसे से अचल संपत्ति बनाते हैं। मदरसे और मस्जिदों का निर्माण करते हैं। अब तो यह भी सुनने में आ रहा है कि देश में जहाँ भी दंगे होते हैं या देश-विरोधी प्रदर्शन होते हैं, वहाँ हलाल प्रमाणपत्र से मिले पैसे का उपयोग किया जाता है। यही नहीं, उनके आरोपियों को छुड़वाने के लिए भी इस पैसे का इस्तेमाल हो रहा है। लव जिहाद के लिए भी हलाल का पैसा काम आ रहा है।

  • विचारनीय बातें 

यदि हलाल के अगले चरण (‘हलाल बैंकिंग’, ‘इस्लामिक बैंकिंग’, ‘हलाल स्टॉक एक्सचेंज’) का दौर शुरू होगा तो हमारी आर्थिक, मानसिक, राजनीतिक और धार्मिक व्यवस्थाएँ इस्लाम की चपेट में आ सकती हैं।

यदि हम अपनी संस्कृति, अपनी अर्थव्यवस्था, अपने संस्कार, अपने रीति-रिवाज को बचाना चाहते हैं, तो हमें भी ऐसी कोई वस्तु नहीं खरीदनी चाहिए, जिस पर हलाल का प्रमाणपत्र हो। जिस दिन हिन्दू समाज ऐसा करने लगेगा, उस दिन ‘हलाल’ और ‘हराम’ का शोर बंद हो जाएगा।

  • क्या करें ?

इसलिए हम और आप आज ही तय करें कि कोई भी वस्तु खरीदते समय यह देखेंगे कि उस पर हलाल का प्रमाणपत्र तो नहीं है। यदि ऐसा हो तो उस सामान को न खरीदें और संबंधित कंपनी को भी टेलीफोन, मेल या अन्य किसी साधन से बताएं कि हलाल प्रमाणपत्र होने के कारण उनका सामान नहीं खरीद रहे हैं। ऐसा करने से कंपनियां हलाल प्रमाणपत्र नहीं लेंगी और लेंगी भी तो कम मात्रा में। यदि ऐसा नहीं हुआ तो कंपनियां धड़ल्ले से हलाल प्रमाणपत्र लेंगी और जिसका लाभ केवल कट्टरवादियों को मिलेगा। हम अपने ही पैसों से कट्टरवादियों को क्यों बढ़ावा दें, इस पर एक बार अवश्य विचार करें।


(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

ये लेखक के अपने विचार हैं 


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